Wednesday 27 July 2011

सिलसिला


एक बार जुड़ा तो टूटता ही नहीं
उनकी स्मृतियों का सिलसिला
क्या हुआ मेरे वजूद को
जिसे वो पत्थर कहा करते थे
बदल जाऊं मै शायद
न जाने क्या-क्या वो करते थे
कुछ वक़्त की नाइंसाफी थी
और कुछ अपनी नादानी
कल तक जो मै
अपनी तन्हाई में खुश था
नहीं थी ख्वाहिश कुछ और पाने की
तो आज क्यूँ महसूस होती है
हर कदम पर किसी की कमी
क्यूँ तलाशती हैं मेरी आँखें
उसके वजूद को
कुछ है रिश्ता उससे शायद! तभी तो
जब भी किसी को कोई
स्नेह से पुकारता है
तो अंकित हो जाता है 
मेरे अन्तः करण पर उनका प्रतिबिम्ब
और शुरू हो जाता है फिर से
एक निश्छल और अटूट
उनकी स्मृतियों का सिलसिला.........