आईना धुँधला गया है,परछाइयों की तलाश में,यह शदी इस कदर बदगुमां होगी यकीं न था,
अब नही देता कोई दादाजी को ऐनक
और दादी को हुक्का
रिश्तों की गहराई को नफरत की ऊँचाई ने पाट दिया है
और अपनेपन को तो जैसे दीमक ने चाट दिया है, त्यौहारों पर पकवान की कोई खुशबू नही आती, शायद इसीलिए अब उनके होने की
भनक भी नही आती,
पहले परिवार में कुछ पड़ोसियों की भी गिनती थी, अब तो उसमें माँ-बाप भी नही आते
आज भी याद है मुझे वो दिन
जब बचपन में दादाजी के पैर दबाने के लिए,
बच्चे आपस में लड़ बैठते थे,
फिर दादाजी के सुलह कराने के बाद,
सब मिलकर शरीर का थोड़ा-थोड़ा हिस्सा दबाते थे जब कभी मन होता तो उनके साथ गांव के खेत खलिहान घूमने निकल जाते
तो कभी उन्हें घोड़ा बनाकर उनकी पीठ पर बैठकर मस्ती भी करते,
कभी उनके कुर्ते से बीड़ी निकाल कर गायब कर देते तो कभी मिट्टी वाली चिलम छुपाकर उन्हें परेशान भी करते।
आज भी याद है मुझे वो दिन
जब हम दादी के पास इकट्ठे होकर,
परियों वाली एक ही कहानी हर रोज़ सुना करते थे, मगर आज तो सबकी अपनी-अपनी ही कहानी है
इस बेवजह व्यस्त दुनिया में
दादाजी भी उन्हें अकेला छोड़ गए
अब नही बैठता कोई भी, दादी के पास
नही सुनता उनकी कहानियों को अब कोई
उन कहानियों में अब धूल की
एक परत सी जम गयी है,
शायद इसीलिए आईना धुँधला गया है.....
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