ये रेत थी तो राख फिर बनाकर क्या मिला तुझे
बुझी बुझी सी जिंदगी...
दिल था मेरा तुम्हारा ही,तूं दिल से खेलता रहा
तूं खुश था मुझको तोड़कर, मैं दर्द खेलता रहा
मेरी वफा का तूने ये, कैसा दिया सिला मुझे
बुझी बुझी सी जिंदगी...
भटक रहे थे दर बदर, तुम्हारी ही तलाश में
गुजर रही थी जिंदगी,मिलन की तेरी आस में
जब आस हमने छोड़ दी तो फिर से क्यों मिला मुझे
बुझी बुझी सी जिंदगी.....
ये रूठने मनाने का भी दौर खत्म हो गया
तू भी किसी की हो गई मैं भी किसी का हो गया
भूली हुई वह दास्तां फिर याद ना दिला मुझे
बुझी बुझी सी जिंदगी...