चली जा रही थी डोली
सिसकियां गूंज रही थी
सर से पांव तक सजी
सुर्ख लाल जोड़े में
उस दुल्हन की
जो कल तक चंचल थी
हंसती थी
हर छोटी-छोटी बातों पर
अपनी सखियों के साथ
आज उनसे
दूर मां-बाप और भाई के
प्यार से बिछड़ कर
एक अनजान सी दुनिया की ओर
गुमसुम थी
अपने अतीत की यादों को लेकर
एक घर को सूना करके
दूसरे घर को आबाद करने
चली जा रही थी डोली.....
कौन समझता उसके दर्द को
जो बैठी थी बिल्कुल अकेली
अपने अरमानों का खून करके
अपनी मर्यादा के आगे मजबूर होकर
जिस आंगन में पलकर बड़ी हुई
उसे छोड़कर
मां बाप की गोद को सूना करके
और उसे भाई को जिसने
उसे हर पल प्यार दिया खुशियां दी
उसे एक पल में रुला कर
चली जा रही थी डोली.....
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