किरदार रंगमंच पर
मुझे नायक बनाकर
मेरी जिंदगी के साथ
ऐसा लगा
जैसे सब कुछ सच हो
और मैं यकीन करता चला गया
उसके हर लफ्जों पर
जाने कब खो गया मैं उसमें
जाने कैसे समा गया उसका वजूद मुझमें
इस कदर जगा गई
वह अपना एहसास मुझमें
कि मुझे और किसी का ख्याल ही नहीं रहा
और जब आंख खुली तो कोई नहीं था
हजारों लाखों के बीच में
मैं बिल्कुल तन्हा था
जैसे कोई नुमाइश की चीज
मेरी आंखों में आंसू थे
और लोग तालियां बजा रहे थे
सुकून था मुझे फिर भी
चाहे मजबूर ही सही
वह इस अभिनय को
एक जीवंत रूप दे चुके थे
फर्क सिर्फ इतना था
कि उसका नायक मैं नहीं
कोई और था
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