गर्मी की तपिस में
तुम्हारे से माथे से निकली हुई पसीने की वह एक बूंद
किस कदर तुम्हारे जिस्म को शराबोर करती हुई
समा गई थी
इस बंदर जमीन में
उसी बूंद से निकला है
यह पौधा शायद
जो आज एक पेड़ बन चुका है
तब बहुत गमजदा था मैं
कि तुम्हारे पलकों की
एक छांव न पा सका
मगर आज खुश हूं
कि जिस पेड़ की छांव में मैं हूं
वह तुम्हारी बूंद से है
No comments:
Post a Comment